हम भी कभी तो थे, कलैंडर आपकी दीवार के
बदरंग ब्यौरे भर हुए हम आज हैं तिथिवार के
हंसिये हथौड़े की व्यथा अब क्या सुनायें तुमको भला
इनके मसीहा खुद मुसाहिब बन गये बाजार के
है वक्त की कोई शरारत या गई फ़िर उम्र ढ़ल
आते नहीं पहले सरीखे अब मजे त्यौहार के
गिरमिटिये बनकर तब गये थे सात सागर पार हम
पर हैं बने हम बंधुआ अब अपनी ही सरकार के
हर पल बहाने ढूंढ़ते रहते हो तुम तकरार के
ये क्या तरीके हैं बसाने को `सखा' घर बार के
~श्याम सखा 'श्याम'
बदरंग ब्यौरे भर हुए हम आज हैं तिथिवार के
हंसिये हथौड़े की व्यथा अब क्या सुनायें तुमको भला
इनके मसीहा खुद मुसाहिब बन गये बाजार के
है वक्त की कोई शरारत या गई फ़िर उम्र ढ़ल
आते नहीं पहले सरीखे अब मजे त्यौहार के
गिरमिटिये बनकर तब गये थे सात सागर पार हम
पर हैं बने हम बंधुआ अब अपनी ही सरकार के
हर पल बहाने ढूंढ़ते रहते हो तुम तकरार के
ये क्या तरीके हैं बसाने को `सखा' घर बार के
~श्याम सखा 'श्याम'
Please pardon me for writing in English… This poem is so revealing the reality in few words. Please accept my compliments.
ReplyDeleteI don’t believe in calendar years / centuries / millennia except to recount history or the Past to compare with the Present.