यार के सब करीब रहते है
दूर हमसे नसीब रहते है
नहीं होता किसी से मेरा इलाज
यहाँ इतने तबीब रहते है
फौजे -हसरत मेर नाला-ओ-आह
बस, यहीं दो नकीब रहते है
दश्ते-ग़ुरबत में रहते है जो लोग
वो हमीसे गरीब रहते है
हम किसी गुल के इश्क में नालाँ
रविशे-अंदलीब रहते है
मेरे और उनके मामले बाहम
क्या कहूँ, क्या अजीब रहते हैं
हों वो तनहा तो कुछ कहूँ मैं 'जफ़र'
साथ उनके रकीब रहते है
~बहादुर शाह जफ़र.
दूर हमसे नसीब रहते है
नहीं होता किसी से मेरा इलाज
यहाँ इतने तबीब रहते है
फौजे -हसरत मेर नाला-ओ-आह
बस, यहीं दो नकीब रहते है
दश्ते-ग़ुरबत में रहते है जो लोग
वो हमीसे गरीब रहते है
हम किसी गुल के इश्क में नालाँ
रविशे-अंदलीब रहते है
मेरे और उनके मामले बाहम
क्या कहूँ, क्या अजीब रहते हैं
हों वो तनहा तो कुछ कहूँ मैं 'जफ़र'
साथ उनके रकीब रहते है
~बहादुर शाह जफ़र.
प्रिय निमिषजी,
ReplyDelete"ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी?",
ये ग़ज़ल ओबैदुल्लाह अलीम की ही है।
अहमद फ़राज़ की नही है।